शनिवार, 25 दिसंबर 2010

87वां जन्मदिन



आज वाजपेयी जी का जन्मदिन (87वां) है! ख़ुशी है, सब के बोल सुनने को मिल जाते हैं - उनकी तबियत ऐसी है,उनके घर दौरा किया,आदि आदि. पर कभी उनके मुंह से कोई बात नहीं सुनी, बस लोकसभा इलेक्शन के दौरान पार्टी को उन्होंने शुभ कामनाएं दी थीं . . जो बस पल दो पल आई और चली गयी. ना चेहरा देखने को मिलता है, ना बोल; उनके लिए लोगों के दिल में जो प्यार और इज्ज़त है उसमे तिल भर का भी फर्क नहीं पड़ता. बल्कि शायद मौनी या साधू को लोग इसलिए मानते हैं कि वो बोलते कम हैं, कम ही नज़र आते हैं. तो तुम्हारे अनंत कद को नापना अब और मुश्किल हो गया :-)

पर एक बात गले नहीं उतरती, बीजेपी वाजपेयी के नाम के कब तक गान गाती रहेगी. वो नहीं बोलते . . .  पर ये - "उनके युग में कभी जिए" लोग बडबडाते रहते हैं. 'उनके बड़े करीबी थे' कह के आप ही खुश होते रहते हैं. एक इंसान अपनी बची उम्र नाप रहा है, उसे चैन से सांस लेने दो, गुमनामी का भी अपना मज़ा है, खासकर तब जब एक काल में आपने बहु शोहरत कमाई हो. उसमे इन कौवों की चीं-चें रास नहीं आती. अभी अभी भारत रत्न को लेकर बवाल मचा रहे हैं, अरे भले मानुसों तुम सत्ता में आओ, खुद ऐलान करदो इस खुशखबर का! कांग्रेस तो ये करने से रही उसको दिवंगत गांधीयों की रूहों की खातिर करने से फुर्सत मिले तब तो. और यूँ 'भारत रत्न' जैसी चीज़ मांगे से अगर मिले तो ना मिलना भला.

अपनी झुकी कमर को सीधा करो, और अपनी बेशर्म नज़रों को नीचा करो . . अपने काले इतिहास को दमकाने के खातिर धर्म व जात की गुत्थियों को जड़ से मिटा दो. हिंदुत्व के नाम पे खून या मंदिर ना ढ़हने दो. क्यूँ नाम लिया जाता है, वाजपेयी का आज भी, ये समझो! कि उस मनुष्य ने, देश के लिए दहाड़ा भी . . जब बाबरी काण्ड हुआ उसे आंसू भी आये . . जिसने संघ को, सत्ता और देशहित के आड़े नहीं आने दिया. वो सच्चा देश भक्त है, एक सफ़ेद रूह वाला नेता, जो शांत है मगर आज भी दिलों में सशक्त है . . जिसकी कविताएँ उसके व्यक्तित्व का दर्पण हैं.

वाजपेयी जी, आपको मेरा और सबका बहुत-बहुत प्यार, खुश रहें और स्वस्थ रहें.
जय हिंद !

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

फिर मिले सत्तू और हरी


आज शाम फिर हरी और सत्तू की मुलाक़ात होती है. रोज़ कहाँ होती हैं गुरु देश की बातें, बस जिस दिन कोई कागज़ी कारवाही हो, या कोई कानूनी झंझट तब याद आता है अखबार और इतिहास. दुसरे दिन से चाय के साथ चेहरे पे पड़ा मिलता है क्या? अखबार.
आज ही सुबह सुबह सतुआ जी पढ़े थे, चले ही नहीं रही लोकसभा, बिपक्ष अड़े हुए है,क्या पी.ए.सी. और ए.बी.सी. लगा रखी है जाने. पर चलनी तो चाहिये. कहें किसी राजा ने घोटाला किया, है कोई ए.राजा . . इ संबोधन क्या इस पुण्य करम के बाद दीये, 'ए' करके बुलान लगे! और नाम राजा, काम रंक जेसा. छी छी छी, लोगों के क्या कोई आदर्श, उसूल बचे हैं या नहीं. सफ़ेद चकाचक पहिन कर ये नंगे काले काम करते हैं.

तो यही चड़ाए बैठे थे दिमाग में, और दारु ने होंठों पे रख दी ला के बात -
तो जनाब शुरू हुए- हरी सुनो, तुमने आज एक घोटाला पढ़े, तुम और हम तो लाखो की सुनके बिदक जाते हैं, साले मंत्री लोग डकार भी नहीं लेते, इतना खा जाते हैं कि हम तुम तो गिन्नी पाएं.क्या सुनोगे? कोई राजा एक लाख करोड़ का घपला कर गया. देखो तो देश सेवा की नाम पे कितनी लूट है. राम बचाए हमारे देस को!

हरी - फिर फिर पढ़ लिए क्या तुम अखबार आज, हम तो अब ज़रा कम ही उठाते हैं, अब देखो देस इतना बड़ा, ऊपर से ये जल्दी से अमीर बन्ने के ख्वाब देखे वाले तुम्हारे और मेरे जैसे लोग! बड़े देस में छोटी मोटी बातें तो होंगी ही, काहे को माथा पच्ची करे, बढ़िया चूल्हा जले इधर हमारे घर में तो, फिर चाहे गांधी की चांद भरे, या कमल के पंखुड़ियां लाल हों .. हमें कोई मतबल नहीं हाँ!

सत्तू- अरे उरे! कोई मतलब नहीं, आतंकवादी बम्ब रखें इधर खेतों में तुम्हारी, यहीं एक दिन आके गुंडाराज शुरू हो जाए, कोई मतलब नहीं! अरे ये सिर्फ अखबार या टीवी पे दमकने वाले लोग नहीं हैं, ससुरे यही हैं जो तुम्हारी और मेरी बनाते और बिगाड़ते हैं,यही हैं जिनके नाम पे कभी पूरे गाँव और कसबे जय जय या मुर्दाबाद के नारे लगाते हैं. अईसे केसे मतलब नहीं?हरी जागे रहना पड़ता है, वरना बहुत डकैत हैं जो अपनी बंदूके दमका और घोड़े चमका रहे हैं.समझे की नहीं!

हरी- बात तो साले काम की कह रहे हो! पर एक हमारी भी सुनलो यार .. ये पीते समय इतनी पेचीदा बातें मत किये करो. चढ़ ही नहीं पाती कि उतार देत हो. सब किरकिरा दीये! धत !!

बुधवार, 24 नवंबर 2010

ठंडी के दिन

मैंने इतने दिन, उघाड़ा काली चादर को बीते वक़्त से . . 
पढ़ीं  कुछ  किताबें  जिनमे  हिन्दू  मुसलमान दंगों को बयान किया गया था. कभी कभी तो इतनी टूट जाती कि, मजबूरन किताब बंद करनी पड़ती..शब्द यूँ उछल उछल के आ रहे थे, मुझे छीलने, मुझे ज़ख्म देने .
टपके . . . पन्नों पे आंसूं भी टपके, और हर पुस्तक से कुछ अलग ये मुझे एक झुकाव दे गयी.

अब मैं पहले से ज्यादा नरम हूँ, रोशन हैं अब निगाह ..मैं अब नहीं चाहती कि फिर एक बार  गोधरा, अलाहबाद, बनारस के लिपे पुते शरीरों को दुबारा देखूं  ! उसी दर्द से ये एक कहानी जैसी कुछ रचना जन्मी है . . 




मुरझाई कहानियों  में से एक ये भी कभी कभी याद आ जाती है, ठंडी के दिन थे ..हम भाइयों के साथ सवेरे सवेरे स्वेटर डंडी लिए निकल जाते गाँव में कहीं भी, ये भाई जानता था  कि कहाँ रुकेगा ये सफ़र. बड़ा मज़ा आता था, किसी लदे पेड़ पे चड़ना, खाना कच्चे पक्के फलों सब्जियों को ..वो खटास अब भी कहीं दांतों में महसूस हो आती है. कुछ दोपहर हो चली थी, सूरज सर पे था ..और इस समय कुछ गिने चुने ही बाहर दिख रहे थे ..कुछ खेत पर ही अपनी अपनी झोंपड़ी में पड़े थे ..कुछ घर गए थे, खाने पीने .
हम बोरियत के मारे, पोखर के पास एक ढलान पे बैठ कर ही कुछ छोटी मोटी बातें कर रहे थे ..कभी पोखर में दो तीन पत्थर भी उछाल देते बतियाते बतियाते.
इतने में दोड़ते भागते कुछ लोग, ज़्यादातर आदमी थे .. सामने से चिलाते हुए दिखे.ऐसा माहोल कभी ना देखा था.भाई के बुरशुर्ट को कस के पकड़ लिए. गालियाँ, नारे ..मारने की बातें करते हुए वो दोड़े जा रहे थे .भाई ने जल्दी जल्दी मुझे और उसके दोस्त को झाडी के पीछे छुपने को कहा.हम चुप चाप वहीँ बैठ गए. शाम तक वहीँ, पसीने में भीगे हुए ..घर के ख्याल लिए हुए बैठे रहे.भाई उठा और हाथ पकड़ के बोला .. चल घर चलते हैं.ऐसा मन हो रहा था, कि  घर पे इस बार कस के डांट मिले और उस डांट कि बदौलत इतना रोयें कि आज कि सारी कसक और अनसमझी पीड़ा से निजात मिल जाए.घर गए,रस्ते में भी कई लपटें, ख़ाक हुए मकां, गाड़ियां ..सारे मंज़र ने होश उड़ा दीये थे .. आँगन में लोटे , बर्तन बिखरे पड़े थे ..खून कि छींटे, कटे शरीर के अंग ..झुमके, ओढ़नी ...
भाई भी काँप रहा था, उसके दोस्त और उसने अन्दर से कुछ चादर कपडे निकाले और  खुदा की दुआओं की बदौलत  हम शहर आ गए.वहां भाई ने काम ढूँढा . . . बड़े गर्दिश में थे हम सब, एक तो माँ बाप का चेहरा दिन भर  दिमाग में घूमता रहता ऊपर से पेट में किसी किसी दिन भूख की चक्की यूँ घूमती कि बस पिस के रह जाते सारे अरमान, सारी खुशियाँ जो कभी हमें हमारा हक़ लगती थीं. 


वाकई ज़बरदस्त ठण्ड थी, अतीत से लिपट के दूर चली गयी . . . पर कभी कभी आज भी एक कंपकपी छोड़ जाती है बदन में.बड़े ठन्डे थे वो दिन, बड़े ठन्डे थे उनके कलेजे भी !

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मेरी भाषा बोलिए कि दिल को ठंडक मिलेगी -

ज़्यादा लम्बा सफ़र नहीं था, कुछ छः सात घंटे का होगा. और ट्रेन थी सो तसल्ली थी कि खिड़की के बाहर  दोड़ते भागते दृश्यों के साथ ही वक़्त भी खिसक जाएगा सर्राटे से ! पर शायद मुझे आज वक़्त को रेंगते हुए देखना था. गाडी चली, सामान जगह पे डाला . . और अपनी जगह पकड़ ली. खुश थी कि इतने दिनों बाद सबके चेहरे दिखेंगे, बदले कद, घर की नयी सजावट ! थोड़ी पे हाथ रख मंद मंद मुस्कुरा रही थी, कि कुछ फुहारें चेहरे को छूने लगीं. थोड़ी देर में ही, सब कड़वा हो गया..बारिश की मोटी मोटी बूँदें बेखटके अन्दर आने लगीं. होना क्या था, मुझे खिड़की लगानी पड़ी. लोगों ने लाइट वगेरह जला दी. आस पास कुछ साउथ के लोग थे, शायद पूरे कूपे में वही थे . . लुंगी, गजरे, अइयो सब चेहेक रहे थे. अब मुझे अजीब सी कुलबुलाहट होने लगी, कि पास बैठा परिवार यूँ रफ़्तार में जाने क्या बतियाये जा रहा था. कभी आवाज़ नीची होती कभी ऊंची, ऐसा लग रहा था वो आदमी लड़ रहा हो!! खैर मैंने पर्स से एक मैगजीन निकाली और अपना मूंह ढक लिया. कितनी ही कोशिश की पर वो आवाज़ मेरे सामने पड़े हर शब्द को ढँक लेती. कैसे भी कर के  उस डराती भाषा के साथ, उस लहजे के साथ जूझती हुई मैं ग्वालियर पहुँच  गयी .स्टेशन पे भैया आया था, मिलके पूछा- कैसी है ?

आह, कितनी तसल्ली मिली ये शब्द सुन कर !  मैं कुछ देर तक उसकी तरफ देख के मुस्कुराती रही जैसे मेरी कोई बहुत भूली, पीछे छूटी कोई चीज़ उसने मेरी मुट्ठी में दबा दी हो. फिर जब ध्यान में आया,  जवाब था - अच्छी हूँ, अब अच्छी हूँ !

शनिवार, 13 नवंबर 2010

चमेली



मेरे किस्सों में इन दिनों औरतें हावी हैं, और उस पर से चमेली छा गयी ज़हन पे ! कुछ घंटे ही हुए हैं, चमेली देखी. उस फिल्म में हैं - रंग . . खासकर लाल और नीला, बारिश और सच जो इंसान से निगला नहीं जाता. एक रात में सिमटा ये किस्सा, नस में उतरते जाता है . . . और जब देख के उठते हैं, आप चमेली की महक से बच नहीं पाते.एक औरत जो धंधा करती है, करती है गर्व से करती है . . क्यूंकि अब खाई के बाहर कोई रास्ता नहीं.
ख़ुशी और गम को फूंकती एक सिगरेट की मानिंद, कुछ धुंआ निगलती हुई कुछ उगल देने वाली.

जुबां है करकट,
दिल में झटपट
इस पाखी के
गीत और अरमान
जाने ना कोई
जाने ना कोई !

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

कभी तो रात हो जाए .

लीला खाना बनाते बनाते गुनगुना रही थी. तभी वहां से चीख आती है, मेरा हैण्डबेग कहाँ है? जवाब देने को हुई ही थी कि बेटे ने स्वर लगाया . . . माँ सोक्स कहाँ रखे ?? पल्लू और बाल खोंसते हुए दोनों के पास गयी और लो सब मिल गया.

बाय कहा, टिफिन पकड़ाया. एक सांस तसल्ली की ली ही थी कि उधर झाडू, बर्तन, पोंछा, मैले कपडे ..सब चीखने लग गए ! लीला बोली - उफ़ ! कभी तो रात हो जाए, मेरी आँखें भी बोझिल हैं.

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

वाह



आज मंदिर गयी थी, टहलते टहलते दोस्तों के संग .. सामने मंदिर दिखा, हम सब बिना कुछ कहे ही, अन्दर चले गए. चप्पल उतर गयीं .. और कुछ देर बाद हम हाथ जोड़े भगवन के सामने खड़े थे.बड़ा ही अनोखा मंदिर था, भीड़ नहीं, ना ही ज्यादा साज श्रृंगार, शोर रत्ती भर का नहीं .. हवा में कुछ था तो वो संगीत - चिड़ियों के गाने का, कभी हवा तो कभी कोई नाज़ुक उँगलियों की छुअन से बजती घंटियाँ. इस माहौल को और रंगमयी बनातीं झील की लहरें. नाम की पूजा कर के हम सब बाहर आ गए. वहीँ कुछ बेन्चेस थीं सो पैर गिराए और अपनी अपनी चुप्पी में खो लिए. हम अपने आस पास की शान्ति से चकित भी थे और खुश भी. कोई कुछ नहीं बोल रहा था, ना ये चाह रहा था की दूसरा बोले.

इतने में एक लड़की मंदिर में आई, बाल खुले, गाउन में थी .. चेहरे पे हाव भाव ठीक थे. हमने ज्यादा ध्यान नहीं दिया.वो अन्दर गयी, काफी देर तक अन्दर रही. और कुछ समय बाद, बाहर आई .. कुछ कदम चले, और बाकी दौड़ने लगी. हँसते हुए, आधे बाल मूंह पे झूलते .. वो दोड़ती हुई बाहार चली गयी. इतना सब देख कर मैं  अवाक थी और जाने क्यूँ मेरे मूंह से निकल पड़ा एक शब्द, जिसे सुनकर मेरे दोस्त भी अचंभित रह गए.
"वाह !"

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

जग अभी तेरे लिए तैयार नहीं है !


एक छुपती दुबकती धूप से, एक नटखट रोशनी का टुकड़ा उस कमरे के अन्दर कदम रखता  है. कहाँ वहां वो लाश सी पड़ी है कई दिनों से, खुद से,खुद के जीवन से घिन खाते  हुए . . . आखिर क्या था इसका कसूर जो उठा ली गयी ये.और देह रस चूस के एक कोने में फेंक दिया गया उसे.रह रह के सोचती, क्या मैं इंसान हूँ .. जो आस पास कभी बसे थे, घूमा फिरा करते थे, सलाम आदर से  नवाज़ा करते  थे ..वो इंसान थे?


कितने समय बाद ये काला पर्दा हटा समाज का, तहज़ीब का. नारी उस काल से इस काल तक आज भी एक बेबस मूरत है, ना उसने अपने पंख कभी खोले ना दुनिया ने कभी उसे आकाश दिखाया, सारे इन्तेज़ामों  से क़तर दिया उसकी उड़ान को. और देखो आज कैसे जानवर कि भाँती,अपने धूमिल, नुचे हाथों को देख रही है.

यूंही हाथ से होकर  निगाह   कंधे, छाती ..पेट पे रूकती है.वहां एक हलचल है, एक उम्मीद है .. और शायद उस उम्मीद की खबर लेने ही ये धूप चुप चाप इस काली दुनिया में चली आई है.पेट पर हाथ फेरती हुई बस दुआ करती है - तू मत बनियो छोरी, कि ए जग अभी तेरे लिए तैयार नहीं है !

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

सत्तू ओ हरि



हरि और सत्तू, दोनों छारी गाँव से ताल्लुक रखते थे, देसी और खेती जम के !
अच्छा रेडियो के दोनों दीवाने, बस मोबाइल में ही रेडियो था .. कान में लगाए घुमते रहते. दिन कैसे भी कटा हो, कितना भी दूर काटा हो .. रात तो वही जग्गू की दारु की दूकान पर. वहीँ से दोनों १२ या १ के आस पास उठते हाथ हिलाते हुए और कहते हुए - चल फिर हरि, चल फिर सत्तू .. अब कल मिलते हैं. दोनों की बीवियां घर में अपने अपने परमेश्वरों को कोसा करतीं, कोसे भी क्यों ना, उनके जेवर धोती सबके पैसे तो सौत दारू ले जाती.

हिलते हिलाते, गिरते लडखडाते दोनों घर आते .. और जाते से ही आँगन में बिछी खाट पर धां ! फिर बडबडाते हुए नींद को प्यारे हो जाते .. और सुबह होश और लक्ष्य के साथ उठते !

खैर, थे मज़े के आदमी, घर बार होते हुए भी बिलकुल कवारों से, बेफिक्राना से. हो तो सही, नहीं हो तो भी सही. जग्गू के महफ़िल में दोनों जो बातें होतीं, वाह ! फिर तो  शराब भी झूमती चेहेकती उनके गले से उतरती. कोई सुनने वाला नहीं था, सिवाए दोनों के, कोई कहने वाला नहीं था, सिवाए दोनों के.

आज शाम भी अँधेरे आसमान को देखते ही दोनों एक कान फोन से ढके .. गाने के हिलोरों पर बहे चले जा रहे थे,वहीँ महफ़िल की ओर. पहुंचे - "अबे सुनो ! इधर दो तो, देसी और हाँ गिलास साफ़ चाइये" .तखत पे हाथ पैर बाँध के, बस आने का इंतज़ार करने लगे .. आई, खोली .. और ये चड़ी ! अब शुरू हुईं दोनों की नशीली गुफ्तगू.

हरि - सुने अभी रेडियो पे, साले चीन, पकिस्तान रोटी खींचे जा रहे ..कुछ हिस्से तो ले भी लिए . और हमारे सरदार जी कुछ करते ही नहीं.ओ का कहते हैं पता है देस को - सोफ्ट स्टेट ..बोले मुलायम.

सत्तू -देखो तो रोटी मुलायम बने तो अच्छी कहलाती है, पर फिर कुत्ते जीभ हिलाते हैं, कड़क बने तो बुरी ..मगर फिर नियत नहीं आती उस पे किसी की. अब सरदार जी मुलायम ..झुक चलते हैं, धीमा बोलते हैं ..कभी भड़कते नहीं, मैडम ने पाले हैं, संस्कार पे तो कोई संदेह नहीं, वो तो कपास से सफ़ेद और  नरम हैं.

हरि - ह्म्म्म, पर बोलो दे दें ! वो लेते जाएँ, हम देते जाएँ. भारत माँ क्या इस लिए बुलाते हैं की अबला को संबोधित  करन लगा ये देस हमारा. चलो छूडो हम तो कहीं बीच में पड़े हैं .. कोई दिक्कत नहीं.

सत्तू - अरे हरि, ऊ गाना सुने का - तेरे मस्त मास दो नैन , मेरे दिल का ...आहा क्या गाना है ..माँ कसम झूम उठते हैं सुनते ही हम तो.

हरि - हाँ, बढ़िया है ..हमें भी पसंद है, हमारा छोरा भी गुनगुनाता रहता है आज कल ऊ ही.

कुछ देर दोनों कुछ नहीं बोले, इधर उधर देखते रहे, आँखें मिस्मिसाते, कभी मच्छर मारते. अब शराब आँखों में उतर गयी थी, दोनों धुंधले से हो गए थे .. आस पास के नज़ारे भी.हरि ने एक मच्छर के संग उस चुप्पी पे भी एक ताली दे मारी.

हरि -एक बात, हमे लगता है देस को किसी पहेलवान की ज़रूरत है, किसी सनकी की .. कि जो बस लग पड़े, और डाल दे इन कुत्तों के गले में पट्टा ! कभी कहबी तो मन करता है चले जाएँ दिल्ली और सिखा दें तीन चार गालियाँ सरदार को .  अरे, ऐसे कैसे लूटे कोई, और गद्दी पे धृतराष्ट्र  !

वेग में आ चुका था हरि, उठ के खड़ा हो गया. सत्तू मुस्कुरा रहा था, मगर शिर्कन उसके माथे पे भी थी.

सत्तू - बैठा बैठा, अरे क्यों बिलावजह .. उड़े जाते हो. मौसम बदलते हैं हरि, क्या पता कोई आय, और देश के कतरे पर .. फिर उड़ने के काबिल .. ऊऊ ऊऊ .

बातों की गर्माहट अब दिमाग में सरकने लगी थी, दोनों अपनी हदों से वाकिफ थे, उठे हाथ हिलाया और अब कल मिलते हैं कह के .. अपनी अपनी डगर को हो लिए.

शनिवार, 28 अगस्त 2010

जनम



जनम किसी का भी हो , चाहे एक सुकडी नाक की बेटी हो, या एक फटे मूंह वाले लल्ले का .. माँ तो खुश होती ही है.
आज तुम्हारा जन्म हुआ है और मैं . . हाँ मैं खुश हूँ !
सालो युगों की परत में दब चुकी कितनी कहानियाँ हैं मेरे पास, दिल में ही कहीं लोटती हुईं पर किसी पन्ने या डायरी से सकुंचाती. चलो बदलते वक़्त ने इसे बड़ा सरल बना दिया, जब भी अन्दर से कोई आवाज़ आये लिख डालो बस .. खोलो बंद सी पड़ी इस बटन वाली किताब को और शुरू हो जाओ .. मुझे कभी अंदाजा नहीं था की मैं अपनी उंगलियों से इतना प्यार करुँगी, कभी मैं इतना लिखूंगी बेखटके.
बस अब की एक बार, ठेला खरीद लिया है कल से कारोबार भी चल पड़ेगा :) रियाज़ के तौर पर ..लेलो हरी ताज़ी रसीली कहानियाँ ले लो ! आज देखो तरकारी क्या छुरी से बना के चलेगी ..आप कटेगी मेमसाब आप ! बस हाथ में पकड़ के तो देखिये ..कितनी ताज़ी, कितनी असली, बिलकुल देसी..
लगता है ज्यादा वादे - उम्मीदें बेच दीये ..माफ़ करना !