रविवार, 12 जून 2011

चोखेर बाली

१२.०६.२०११

चोखेर बाली देखी,
बड़ी लज़ीज़ होती हैं इस तरह की दर्ज इतिहास में जहाँ औरत मर्दों को ठीक उसी एड़ी के तले रखती हैं जहाँ उसे समाज रखता आया है. यहाँ अफसाना सरकता रहता है और वहाँ सूरज उगता-सा प्रतीत होता है. बात दमन की नहीं है
कि अन्याय के बदले अन्याय दिया जावे, पर कहानियों मे ही सही . . या कहीं गिनी-चुनी जिंदा-मृत मिसालों में सही . . सालों दबे आक्रोश को इन ज़रियों से फूटने का मौका मिलता है. सिकुड़े माथे को कुछ करार मिलता है.

दिन निकलता है,
और एक सुराख के ज़रिये
अंधियारी कुटिया में घर कर लेता है.

आशाओं का परिंदा कभी नहीं
थकता .. वो निरंतर उड़ता रहता है.

सोमवार, 6 जून 2011

मुलाक़ात और अजनबी

देखो मुलाकातों के ढेर लगे हैं,
पर हम अजनबी हैं आज भी
और शायद आगे भी रहेंगे . . .

प्रिया और अरिहंत कुछ एक साल पहले मिले थे. छोटी सी पहचान थी, नंदिता के ज़रिये जो दोनों की दोस्त थी. दो-तीन मुलाकातों ने तो कोई असर न छोड़ा. मगर फिर कभी-कभी जब नंदिता बीच में दोनों को अकेला छोड़ जाती, तब कोई चारा न पा कर एक-दुसरे मे झांकना पड़ता. और इत्तेफाक़न दोनों बहुत जुदा थे शौक में, तरीकों में .. पर जाने क्यूँ दोनों कुछ न कुछ वजह पकड़ चुके थे अब !

जानते-जानते कभी-कभी दोनों को अहसास होता कि लो पूरी हुई गयी तहक़ीक़ात, जान लिया इसे पूरी तरह. पर कभी-कभार एक दुसरे के उन विचित्र पहलुओं को उघाड़ते जिसके लिए शायद सदियाँ बीत जायें पर ये परत दर परत का लिपटाव नहीं.

खैर, उस खोज में रोमांस था. उस अजनबी से अहसास ने उन्हें एक काम दे रखा था. दोनों आँखें गढ़ाए, दिल खोले बैठे रहते . . . हाँ, प्यार है, कब तक . . जब तक हम अजनबी हैं, रोज़ मिलने वाले अजनबी !