बुधवार, 27 जुलाई 2011

शहर

उसका इस शहर में दम घुटता था. पेट के खातिर, जाने किस-किस देस जाना पड़ता है . .
अनार्थ मगर आत्मा बिल्कुल कमज़ोर नहीं थी. कुछ और बहुत दुनियादारी सीखी, आज तक का सफ़र बिना किसी के अहसान और दुआओं के काटा.
गांव से यूँ शहर आना सोचा न था, पर ज्यों ही वहाँ खाने के लाले पड़ने लगे . . इस दफ़ा बारिश की कमी ने जाने कितने चूल्हों को ठंडा कर दिया !
खैर, अब यहाँ ही खुशी ढूँढनी थी. थकी-हारी घर लौटती, खाना बनाती. और जब बिस्तर पर देह रखती. जाने क्या बोलने लगता. पूरा गांव आस-पास आ बैठता, वहां के रंग, मेले . . अनजान रिश्ते.
और तब वो सोना भूल अपनी खिड़की से झांकती, एक छोटी-सी मैली खिड़की-जिससे चाँद दिखता था, एक लंबी सी इमारत (बड़े लोगों के मकां), एक कचड़े का ढेर और आस-पास मंडराते कुत्ते .. जो जब-तब भोंकते ही रहते थे. खिड़की पे आकर वो एक लंबी-सी सांस लेती और उसकी आँखें भर आतीं. यहाँ सब कुछ होते हुए भी जीवन नहीं था, मगर उधर गांव में . . वहां रोटी-चटनी से बड़ा नहीं था खुशियों का मिलना. मुस्कुराते चहरे, लबलबाती खुशियाँ...

और यहाँ अपनी मोटी सधी आवाज़ में वो एक साज़ गाती थी. जिसमें उसके दुःख, लौट जाने की इच्छा, सावन, आँगन सब आ बरसते. उस गान को सुन कोई भी रो पड़े शायद, पर रात कुछ कहती नहीं तो सुनती भी नहीं.