उसका इस शहर में दम घुटता था. पेट के खातिर, जाने किस-किस देस जाना पड़ता है . .
अनार्थ मगर आत्मा बिल्कुल कमज़ोर नहीं थी. कुछ और बहुत दुनियादारी सीखी, आज तक का सफ़र बिना किसी के अहसान और दुआओं के काटा.
गांव से यूँ शहर आना सोचा न था, पर ज्यों ही वहाँ खाने के लाले पड़ने लगे . . इस दफ़ा बारिश की कमी ने जाने कितने चूल्हों को ठंडा कर दिया !
और यहाँ अपनी मोटी सधी आवाज़ में वो एक साज़ गाती थी. जिसमें उसके दुःख, लौट जाने की इच्छा, सावन, आँगन सब आ बरसते. उस गान को सुन कोई भी रो पड़े शायद, पर रात कुछ कहती नहीं तो सुनती भी नहीं.
अनार्थ मगर आत्मा बिल्कुल कमज़ोर नहीं थी. कुछ और बहुत दुनियादारी सीखी, आज तक का सफ़र बिना किसी के अहसान और दुआओं के काटा.
गांव से यूँ शहर आना सोचा न था, पर ज्यों ही वहाँ खाने के लाले पड़ने लगे . . इस दफ़ा बारिश की कमी ने जाने कितने चूल्हों को ठंडा कर दिया !
खैर, अब यहाँ ही खुशी ढूँढनी थी. थकी-हारी घर लौटती, खाना बनाती. और जब बिस्तर पर देह रखती. जाने क्या बोलने लगता. पूरा गांव आस-पास आ बैठता, वहां के रंग, मेले . . अनजान रिश्ते.
और तब वो सोना भूल अपनी खिड़की से झांकती, एक छोटी-सी मैली खिड़की-जिससे चाँद दिखता था, एक लंबी सी इमारत (बड़े लोगों के मकां), एक कचड़े का ढेर और आस-पास मंडराते कुत्ते .. जो जब-तब भोंकते ही रहते थे. खिड़की पे आकर वो एक लंबी-सी सांस लेती और उसकी आँखें भर आतीं. यहाँ सब कुछ होते हुए भी जीवन नहीं था, मगर उधर गांव में . . वहां रोटी-चटनी से बड़ा नहीं था खुशियों का मिलना. मुस्कुराते चहरे, लबलबाती खुशियाँ...
और यहाँ अपनी मोटी सधी आवाज़ में वो एक साज़ गाती थी. जिसमें उसके दुःख, लौट जाने की इच्छा, सावन, आँगन सब आ बरसते. उस गान को सुन कोई भी रो पड़े शायद, पर रात कुछ कहती नहीं तो सुनती भी नहीं.
2 टिप्पणियां:
अकेलेपन का दर्द और जाने पहचाने से कटने और दूर होने का दर्द! भावानुभ्यक्ति बहुत सुन्दर है.
tumhari mehfil me aa gae hai, to kyu na hum ye bhi kam karle,
salaam karne ki arju hai,idhar jo dekho salaam karle!
umrao jaan ki is gajal ki panktiyo ko likte hue hum apko apne blog par ane ka nyota dete hain
ateetkiyaadein.blogspot.com
intazaar rahega
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