सोमवार, 23 मई 2011

ग्वालियर के भीतर

एक नए शहर को सांस में भरना कितना सुखद होता है.
उसका इतिहास, उसके रंग, बाज़ार .. लोग, मकान सब आप के नाम होने को उत्सुक रहते हैं. पाँव पड़ा है एक ऐसा ही नया शहर .. और मैं पूरी तरह तैयार हूँ इसे अपनी बाहों में भरने के लिए.  क्या है मेरे शहर में, कुछ मेरी नज़र से ..

यहाँ मकबरे, किले हैं - मज़बूत होते हुए भी नज़ाकत की चादर ओढ़े. सांझ ढले लोग इनके इर्द गिर्द फ़ालतू किस्सों में उलझे निकल जाते हैं. कभी कभी उपेक्षित महसूस करते हैं खुद को, मगर कुछ इन्हें हलके हाथो से सहला कर देखनेवाले भी आते हैं. हाँ हाँ, कुल मिला कर खुश हैं ये !

फिर और .. और है गर्मी, और नज़रों को सुहाता अमलतास. इसे देखते हुए मैं कभी नहीं थकती. वो भी मुझपे नज़रों गढ़ाए चकित होता है. मैं कौन सुन्दर हूँ, जो ये इतने अचरच छोड़ मुझे देख रही है. पर तुम नहीं जानते अमलतास, उस दिन तुम्हारे नाम से नावाकिफ सिर्फ तुम्हारे पीले गुच्छों को ताका था. तभी गुज़रते किसी मजदूर ने पूछने पर तुम्हारा नाम बतलाया. बस तब से इशक में गुल हो गए तुम्हारे !! 

बाकी और भी बहुत कुछ है, पर ये रात छोटी है . . और बेशर्म चीख के मुझे वक़्त बतलाती है ! 
विदा.