रविवार, 22 सितंबर 2013

एक कैंसर पेशेन्ट की डायरी

  ५.६.२००९
काश मैंने उससे कुछ साल पहले ही सब कुछ साफ़-साफ़ कह दिया होता. बयां कर दिया होता उसे अपना प्रेम जो सदियों से जैसे मैंने इस ही चेहरे के लिए संजोकर रखा था.
आज उससे मिलना हुआ, मेरा हाथ भी थामे रही कुछ देर के लिए. जाने किसने ख़बर दी थी उसे कि मैं यहाँ हूँ इस अनहोनी से लड़ता हुआ. सुना था उसकी शादी होने वाली है, मगर जब वह आयी तो पूछा न गया..क्योंकि मैं जानना नहीं चाहता. वह मेरे पास है, बस इतना ही काफ़ी है. बहुत लड़ लिया इस संसार की जटिलताओं से मैं, अब सरल नज़रों से सब देखना चाहता हूँ. हम काफ़ी देर तक बातें करते रहे, और तब उससे बात करते-करते मुझे अचानक आईने की याद आयी. इतने दिन सूरत का होश न था..आज एकाएक उस नज़रंदाज़ सूरत का मुझे ख़याल आया था. खुद कई बार मन ही मन पूछता और जवाब देता -
ठीक तो लग रहा हूँ न मैं? हाँ, ठीक ही होगा..ठीक ही होना चाहिए.

जिस तरह उसने बात की, उसकी निगाहों में जिस तरह की नरमी थी, उससे थोड़ी देर बाद न उसकी शादी का प्रश्न पास फटका न ही मेरे श़क्ल ढंग का.

८.६.२००९
वह कभी फूलों के साथ महकती-सी प्रवेश करती है इस मौत से जूझते कमरे में..तो कभी थैलियों में कुछ फल-सेब ले आती है. अब आदत सी हो चली है उसकी, जैसे नए रंग आये हों इस नीरस जीवन में.

वरना पहले क्या था..हाँ सब यही था पर ऐसा नहीं था.

मेरे जीवन तो करीब एक साल से इस कमरे में बंद है. एक खिड़की है जहाँ से आते-जाते लोग दिखते हैं - बीमार, लंगड़े, पीड़ित, अभागे लोग. एक बिस्तर जिस पर मैं पड़ा रहता हूँ लाचार-सा. गंदले भूरे परदे, ये बाजू में रखा छोटा-सा स्टूल जिसका एक पाया छोटा है और जिस पर बिछा रहता है मेरी दवाइयों का अंबर, एक पैन और नोटपेड. कभी-कभार पड़े गुलदान में वह कुछ फूल रख जाती है. बसी यही मेरा संसार बन गया है अब.
उम्मीद है, होती ही है कि कभी ये परीक्षा भी सरक लेगी वक़्त के साथ और मैं खुली हवा में साँस ले पाउँगा.

१५.६.२००९
आज वह नहीं आयी. फोन भी नहीं किया. ऐसा कभी होता है तो लगता है कि मजबूरी होगी उसकी कि वो आती है और अगर आज नहीं आयी तो मुझे दुखी होने का कोई हक़ नहीं. उसका जीवन है, कई बार इंसानियत और हमदर्दी के रिश्ते निभाते-निभाते भी इंसान ऊब जाता है.
खैर कोई बात नहीं, मैं फिर नोटपेड पर एक खुले बालों वाली लड़की बनाऊँगा और उसके बालों में होंगे बहुत से चमेली के फूल. पिछली दफ़ा जो सोचा था उसे कागज़ पर उभार नहीं पाया...वैसे ड्राविंग वगेरह में तो शुरू से ही थोड़ा ढीला रहा हूँ, फिर आज क्यों इतनी इच्छाओं से भर उठा हूँ मैं कि लगता है जो भी मन में आकार ले रहा है उसे हुबहू कागज़ पर उतार दूँगा. यह ग़लतफहमी कई बार हुई है और ताज्जुब यह है कि कुछ अंतराल में फिर होती है.
दौर है ग़लतफहमियों का, उम्मीदों का, सपनों का..

३०.६.२००९
उस दिन उसके ना आने का कारण पूछा तो खुद पर शर्म आयी कि कितना खुदगर्ज़ हो गया हूँ मैं. कि इस हालत में पड़ा-पड़ा भी मैं इस अहंकार में हूँ कि मैं हक़दार हूँ दुनिया भर के प्यार और हमदर्दी का. उसकी माँ की तबियत बहुत खराब थी..सो उसे घर पर रहना पड़ा.
खैर, अब सिलसिले में कोई खलल नहीं आती और आयी भी मैं समझा लूँगा ख़ुद को..



३.७.२००९
अब सुधार की ज़्यादा राह नहीं देखता, जितना समय बचा है उसे खूबसूरती से गुज़ारना चाहता हूँ. इन आखिरी दिनों में उसका साथ है. इसकी उम्मीद तो मैंने नहीं की थी..इतना जल्दी में हुआ यह सब कि मैं ख़ुद को भी नहीं समझा पाया, और शहर-नाते सब जैसे उस बंद मकान में दफ़न हो गए जिसे ताला लगाकर यूँ ही अस्पताल चला आया था. मैं भी जैसे चाहता ही था कि कोई इस दौड़-भाग से रोक ले मुझे, एक ठहराव की मांग मेरी रूह को भी थी..और यह बिमारी जैसे एक दुआ बनकर आई. दुआ ही है कि जिसके साथ मैंने जिंदगी गुज़ारने के सपने देखे थे वह आज पूरे हो रहे हैं. हाँ, माना कि अब जिंदगी छोटी है और हमारी मुलाकातों में घड़ी की टिक-टिक का शोर है, मगर मैं खुश हूँ, कि इस छोटे से आकाश के टुकड़े पर मैं कुछ दिनों के लिए अपना सूरज खिला सकता हूँ.



शनिवार, 28 जनवरी 2012

गली और आसमान

जब भी वो खिड़की खोलती सीधे आसमान की तरफ़ देखती. ऊपरी मंजिला मकान का एक ये सुख है- ज़मीन, उसके बाज़ार, शोर अपने हो ना हों..आसमान, उसके पिघले रंग, पक्षी, तारे सब आपके अपने होते हैं. और यह कितने शांत और सरल हैं.
कभी-कभार यूँ गली की ओर देखती भी तो - वही तंग रस्ते पर परिवार को लादे एक रिक्शावाला, रंगीन कमीज़ पहने कुछ  रसिक युवक जो खंभे पर टिके-टिके अपनी उड़ती नज़रों के पेच जोड़ने में लगे हैं, भोलू हलवाई जो जलेबी तल रहा है, कोई बेनाम अधेड़ जो दीवार पर पीक थूक रहा है, कोई अधनंगा बच्चा रोता हुआ.
यहाँ शोर था, एक भागम-भाग थी, बेशुमार उलझे-बिखरे जीवन...कितनी उथल-पुथल है नीचे..और ऊपर, ऊपर आसमान मौन है, नरम आँखों से सब कुछ देखता हुआ. पर..
आकाश तक तो कोई सीढ़ी नहीं जाती वरना..वह इस कोठे में न होती. तब तो वह तारों की पायल पहन एक ठुमरी गाती और खूब नाचती...पूरे आसमान पर नाचती, रौंद डालती सूरज और चाँद. आकाश नहीं जानता धरती पर कितना अँधेरा है.वह नहीं जानता..
उसके घुँघरूओं में कितना गुस्सा है, उसके काजल में कितनी उदासी..और उसके लाल होठों में कहाँ रंग है, कहाँ लहू.

मग़मूम हुआ दिल बिलखता है
सितारों को देखकर, सितारों के साथ
देखता है उन राहों को जहाँ से
खोयी आवाजें तो आती हैं पर
खोये कदम नहीं..






मंगलवार, 24 जनवरी 2012

बीमार लड़की, छत और चित्र


बीमार लड़की काफ़ी देर तक छत की ओर ताकती रही. फिर उसे अपना सूखा गला याद आया.
उसका बदन टूट रहा था पर उसने खुद से पूछा- तुम टूटी?
अंदर से आवाज़ आयी-बिल्कुल नहीं.
रात के अँधेरे धागों को तोड़ती-बुनती वो इधर-उधर के चेहरे देखने लगी. उसे पिता की याद आयी जो हल्की-सी छींक आने पर घर सर पर उठा लेते हैं. और फिर माँ को बीमार किया तो घर का पहिया रुक गया, माँ जब-जब बीमार होती, मुस्कुराते हुए ये ज़रूर कहतीं- बीमार मैं नहीं तुम लोग हो, मुझसे ज़्यादा दुःख और तकलीफ़ में हो. और सब मानते भी कि उसके बिना हम कुछ नहीं, ये घर कुछ नहीं.

माँ से होते हुए उसे धीर-धीरे एक लाल रंग की धोती में लिपटी स्त्री दिखी..उसके साथ लिपटी हज़ारों जंज़ीरें.

वह औरत अचानक एक मासूम लड़की में तब्दील हो जाती है..दो गुंथी चोटी वाली चंचल लड़की..जो झूमती है, गाने गाती है, फूलों को इकठ्ठा कर मालाएँ पिरोती. धीरे-धीरे उसके आस-पास भीड़ बढ़ जाती है..कुछ नज़रंदाज़ कर आगे निकल गए तो कुछ घूरते घूरते रुक गए. उसी भीड़ से उसकी माँ का चेहरा उभरता है, वो उसकी तरफ़ एक चुनरी फेंक कर चली जाती है. लड़की धीरे से चूनर ओढ़ लेती है. भीड़, अजब भीड़ जिसकी जिज्ञासा शांत ही नहीं होती, कोई जाए तो नया आता.

उसे अपनी गुड़िया याद आयी जिसकी उसने बिना पूछे शादी कर दी थी, बताशे बांटे थे दोस्तों में और उसकी भोहों के ऊपर तरीके से बिंदियाँ निकाल कर, नाक में एक मोती डालकर..किस तरह स्वाहा-स्वाहा कर उसे फूलों से ढँक दिया था.

आज वो गुड़िया बनी है, सजी-धजी गुड़िया. माँ ने अपना सबसे कीमती जेवर...चुप्पी, उसके पल्लू से बाँध दिया. वह उस गाँठ तो तोलती-मोलती चले जाती है उस आदमी के साथ जो भीड़ कर एक हिस्सा था. उसे उस आदमी से कोई ख़ास हमदर्दी नहीं, वो नहीं जानती किस लिए उसे वो खेल छोड़ने पड़े, किस लिए अपना घर छोडना पड़ा. मगर बुरा किया इस आदमी ने उसके साथ.

इतना सोच बीमार लड़की मुस्कुराने लगती है और मन ही मन बुदबुदाती है- चलो इसे आज़ाद करें!

इस सोच को मनचाहा रंग देती वो उस लड़की का हाथ गाँठ पर रखवाती है और  दृढ़ता के साथ उसे खुलवा देती है. वो आदमी उसकी तरफ़ मुड़के गुस्से से देखता है और वो उसे नकारती हुई...भीड़ से दूर, चुनरी को छोड़ हरे जंगल में दौड़ जाती है.




शनिवार, 10 दिसंबर 2011

सारा शगुफ़्ता--टूटे रंग


इन्ही छुट्टियों में, सारा का हाथ मेरे हाथ पे रख गयीं अमृता प्रीतम. पाकिस्तान में ऐसे ज़ेहन का होना बड़ी, बहुत बड़ी बात है. सारा का एक-एक लफ्ज़ दुनिया की हर औरत में गूंजता है...बस इतना है-कुछ चुप्पी साध लेती हैं, कुछ कराह लेती हैं और कुछ...कुछ होती हैं जो चिल्ला पड़ती हैं- कहीं दर्ज कर देती हैं अपने एहसासों को दुनिया के लिए, आने वाली बेटियों के लिए, बीवियों के लिए.

वो सारा शगुफ़्ता जो चटख लाल लिपस्टिक लगाती है, आँखों में एक नशेदार पानी जो शायद हर मुसलिम औरत की आँखों में रहता है. आत्महत्या करने वाली औरतें भी, मर तो जाती हैं पर एक बेहद गहरी चीख छोड़ जाती हैं. उस चीख के मायने समझने की कोशिश लोग बार-बार करते हैं...समाज, पति, ससुराल, पिता..सब के ऊपर शक जाता है और जाकर वहीँ किसी पे ठहर भी जाता है. क्योंकि किसी में इतना बूता नहीं कि उसे मौत की खाई में धकेल दे..सिवाय उन लोगों के जिन्हें उसने दिन-रात ख़ुदा से ज़्यादा चाहा, पर मिले तो कुछ निशाँ, कुछ सिसकियाँ, अँधेरा..जो साफ़-साफ़ बयां देते थे कि 'अब मत खापो इनके लिए, ये तुम्हारे काबिल नहीं'.

सारा ने अपनी मौत को कुछ यूँ लिखा था-
"मेरे पैरों तले की ज़मीन चुरा ली गई थी और मेरे बदन को ही मेरा वतन  क़रार दे दिया गया था, ये कब तक क़बूल करती रहती? इंसानों के दाग़ धेते - धेते मेरे तो हाथ काले पड़ चुके थे। उदासी का एक अथाह समन्दर मेरी छोटी सी कश्ती में हरदम सवार रहता। ख़ुदा तो चांद की स्याही से रात लिखता है, लेकिन ख़ुदा के बंदों ने रात की स्याही से मेरे  दिन लिख दिए थे। दुनिया की बेज़मीरी मेरा बदन चाट चुकी थी। बस एक रूह थी, जिसे मैंने मस्जिद की ईंट की तरह बचा रखा था। कहते हैं, बदन में बहुत दिन क़ैद रही तो रूह में ज़ंग लग जाता है, सो चार जून 1984 की उस रात मैंने कर बिस्मिल्लाह खोल दी गांठ..."

सारा की मौत को कहता आखिरी अंश इस चिट्ठे से लिया गया है-
http://janshabd.blogspot.com/2010/12/blog-post.html

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गुरुवार, 3 नवंबर 2011

घर और जाल


दोपहर वो नींद से उठती है और पिंजरों में बैठे सारे तोते उड़ा देती है. उसे न ग़म होता है न खुशी, क्यूंकि अभी उसे आज़ादी नहीं मिली थी, शायद मिले भी नहीं .. शातिर सैयाद और भोला शिकार.
वो खुद बैठ के शिकारी के साथ जाल बुन रही थी, उसे बनाते हुए उसने पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी!

तोतों को तब तक देखती रही जब तक वो बादलों में डूब ना गए. वो सफ़ेद झाग-से बादल और 
हरे हरे तोते. गेट खुला, कोई व्यक्ति अंदर आया..उस व्यक्ति के हावभाव अजनबियों से नहीं थे, दोनों ने मुस्कुराहटें बांटीं. वो बिना कुछ कहे रसोई गयी, कुछ बिस्कुट और चाय साथ लाई. व्यक्ति को अनदेखा कर वो बाग के फूल ताकती, कभी आकाश देखती.

टीवी खोला, एक फिल्म चल रही थी. नायिका खुदखुशी कर लेती है. खून और टूटे शीशों के बिम्ब लिए वो टीवी बंद कर सोने चले गयी.


बुधवार, 27 जुलाई 2011

शहर

उसका इस शहर में दम घुटता था. पेट के खातिर, जाने किस-किस देस जाना पड़ता है . .
अनार्थ मगर आत्मा बिल्कुल कमज़ोर नहीं थी. कुछ और बहुत दुनियादारी सीखी, आज तक का सफ़र बिना किसी के अहसान और दुआओं के काटा.
गांव से यूँ शहर आना सोचा न था, पर ज्यों ही वहाँ खाने के लाले पड़ने लगे . . इस दफ़ा बारिश की कमी ने जाने कितने चूल्हों को ठंडा कर दिया !
खैर, अब यहाँ ही खुशी ढूँढनी थी. थकी-हारी घर लौटती, खाना बनाती. और जब बिस्तर पर देह रखती. जाने क्या बोलने लगता. पूरा गांव आस-पास आ बैठता, वहां के रंग, मेले . . अनजान रिश्ते.
और तब वो सोना भूल अपनी खिड़की से झांकती, एक छोटी-सी मैली खिड़की-जिससे चाँद दिखता था, एक लंबी सी इमारत (बड़े लोगों के मकां), एक कचड़े का ढेर और आस-पास मंडराते कुत्ते .. जो जब-तब भोंकते ही रहते थे. खिड़की पे आकर वो एक लंबी-सी सांस लेती और उसकी आँखें भर आतीं. यहाँ सब कुछ होते हुए भी जीवन नहीं था, मगर उधर गांव में . . वहां रोटी-चटनी से बड़ा नहीं था खुशियों का मिलना. मुस्कुराते चहरे, लबलबाती खुशियाँ...

और यहाँ अपनी मोटी सधी आवाज़ में वो एक साज़ गाती थी. जिसमें उसके दुःख, लौट जाने की इच्छा, सावन, आँगन सब आ बरसते. उस गान को सुन कोई भी रो पड़े शायद, पर रात कुछ कहती नहीं तो सुनती भी नहीं.


रविवार, 12 जून 2011

चोखेर बाली

१२.०६.२०११

चोखेर बाली देखी,
बड़ी लज़ीज़ होती हैं इस तरह की दर्ज इतिहास में जहाँ औरत मर्दों को ठीक उसी एड़ी के तले रखती हैं जहाँ उसे समाज रखता आया है. यहाँ अफसाना सरकता रहता है और वहाँ सूरज उगता-सा प्रतीत होता है. बात दमन की नहीं है
कि अन्याय के बदले अन्याय दिया जावे, पर कहानियों मे ही सही . . या कहीं गिनी-चुनी जिंदा-मृत मिसालों में सही . . सालों दबे आक्रोश को इन ज़रियों से फूटने का मौका मिलता है. सिकुड़े माथे को कुछ करार मिलता है.

दिन निकलता है,
और एक सुराख के ज़रिये
अंधियारी कुटिया में घर कर लेता है.

आशाओं का परिंदा कभी नहीं
थकता .. वो निरंतर उड़ता रहता है.