गुरुवार, 3 नवंबर 2011

घर और जाल


दोपहर वो नींद से उठती है और पिंजरों में बैठे सारे तोते उड़ा देती है. उसे न ग़म होता है न खुशी, क्यूंकि अभी उसे आज़ादी नहीं मिली थी, शायद मिले भी नहीं .. शातिर सैयाद और भोला शिकार.
वो खुद बैठ के शिकारी के साथ जाल बुन रही थी, उसे बनाते हुए उसने पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी!

तोतों को तब तक देखती रही जब तक वो बादलों में डूब ना गए. वो सफ़ेद झाग-से बादल और 
हरे हरे तोते. गेट खुला, कोई व्यक्ति अंदर आया..उस व्यक्ति के हावभाव अजनबियों से नहीं थे, दोनों ने मुस्कुराहटें बांटीं. वो बिना कुछ कहे रसोई गयी, कुछ बिस्कुट और चाय साथ लाई. व्यक्ति को अनदेखा कर वो बाग के फूल ताकती, कभी आकाश देखती.

टीवी खोला, एक फिल्म चल रही थी. नायिका खुदखुशी कर लेती है. खून और टूटे शीशों के बिम्ब लिए वो टीवी बंद कर सोने चले गयी.