बुधवार, 24 नवंबर 2010

ठंडी के दिन

मैंने इतने दिन, उघाड़ा काली चादर को बीते वक़्त से . . 
पढ़ीं  कुछ  किताबें  जिनमे  हिन्दू  मुसलमान दंगों को बयान किया गया था. कभी कभी तो इतनी टूट जाती कि, मजबूरन किताब बंद करनी पड़ती..शब्द यूँ उछल उछल के आ रहे थे, मुझे छीलने, मुझे ज़ख्म देने .
टपके . . . पन्नों पे आंसूं भी टपके, और हर पुस्तक से कुछ अलग ये मुझे एक झुकाव दे गयी.

अब मैं पहले से ज्यादा नरम हूँ, रोशन हैं अब निगाह ..मैं अब नहीं चाहती कि फिर एक बार  गोधरा, अलाहबाद, बनारस के लिपे पुते शरीरों को दुबारा देखूं  ! उसी दर्द से ये एक कहानी जैसी कुछ रचना जन्मी है . . 




मुरझाई कहानियों  में से एक ये भी कभी कभी याद आ जाती है, ठंडी के दिन थे ..हम भाइयों के साथ सवेरे सवेरे स्वेटर डंडी लिए निकल जाते गाँव में कहीं भी, ये भाई जानता था  कि कहाँ रुकेगा ये सफ़र. बड़ा मज़ा आता था, किसी लदे पेड़ पे चड़ना, खाना कच्चे पक्के फलों सब्जियों को ..वो खटास अब भी कहीं दांतों में महसूस हो आती है. कुछ दोपहर हो चली थी, सूरज सर पे था ..और इस समय कुछ गिने चुने ही बाहर दिख रहे थे ..कुछ खेत पर ही अपनी अपनी झोंपड़ी में पड़े थे ..कुछ घर गए थे, खाने पीने .
हम बोरियत के मारे, पोखर के पास एक ढलान पे बैठ कर ही कुछ छोटी मोटी बातें कर रहे थे ..कभी पोखर में दो तीन पत्थर भी उछाल देते बतियाते बतियाते.
इतने में दोड़ते भागते कुछ लोग, ज़्यादातर आदमी थे .. सामने से चिलाते हुए दिखे.ऐसा माहोल कभी ना देखा था.भाई के बुरशुर्ट को कस के पकड़ लिए. गालियाँ, नारे ..मारने की बातें करते हुए वो दोड़े जा रहे थे .भाई ने जल्दी जल्दी मुझे और उसके दोस्त को झाडी के पीछे छुपने को कहा.हम चुप चाप वहीँ बैठ गए. शाम तक वहीँ, पसीने में भीगे हुए ..घर के ख्याल लिए हुए बैठे रहे.भाई उठा और हाथ पकड़ के बोला .. चल घर चलते हैं.ऐसा मन हो रहा था, कि  घर पे इस बार कस के डांट मिले और उस डांट कि बदौलत इतना रोयें कि आज कि सारी कसक और अनसमझी पीड़ा से निजात मिल जाए.घर गए,रस्ते में भी कई लपटें, ख़ाक हुए मकां, गाड़ियां ..सारे मंज़र ने होश उड़ा दीये थे .. आँगन में लोटे , बर्तन बिखरे पड़े थे ..खून कि छींटे, कटे शरीर के अंग ..झुमके, ओढ़नी ...
भाई भी काँप रहा था, उसके दोस्त और उसने अन्दर से कुछ चादर कपडे निकाले और  खुदा की दुआओं की बदौलत  हम शहर आ गए.वहां भाई ने काम ढूँढा . . . बड़े गर्दिश में थे हम सब, एक तो माँ बाप का चेहरा दिन भर  दिमाग में घूमता रहता ऊपर से पेट में किसी किसी दिन भूख की चक्की यूँ घूमती कि बस पिस के रह जाते सारे अरमान, सारी खुशियाँ जो कभी हमें हमारा हक़ लगती थीं. 


वाकई ज़बरदस्त ठण्ड थी, अतीत से लिपट के दूर चली गयी . . . पर कभी कभी आज भी एक कंपकपी छोड़ जाती है बदन में.बड़े ठन्डे थे वो दिन, बड़े ठन्डे थे उनके कलेजे भी !

1 टिप्पणी:

Kunal Verma ने कहा…

माशाल्लाह क्या लिखतीँ हैँ आप!