मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मेरी भाषा बोलिए कि दिल को ठंडक मिलेगी -

ज़्यादा लम्बा सफ़र नहीं था, कुछ छः सात घंटे का होगा. और ट्रेन थी सो तसल्ली थी कि खिड़की के बाहर  दोड़ते भागते दृश्यों के साथ ही वक़्त भी खिसक जाएगा सर्राटे से ! पर शायद मुझे आज वक़्त को रेंगते हुए देखना था. गाडी चली, सामान जगह पे डाला . . और अपनी जगह पकड़ ली. खुश थी कि इतने दिनों बाद सबके चेहरे दिखेंगे, बदले कद, घर की नयी सजावट ! थोड़ी पे हाथ रख मंद मंद मुस्कुरा रही थी, कि कुछ फुहारें चेहरे को छूने लगीं. थोड़ी देर में ही, सब कड़वा हो गया..बारिश की मोटी मोटी बूँदें बेखटके अन्दर आने लगीं. होना क्या था, मुझे खिड़की लगानी पड़ी. लोगों ने लाइट वगेरह जला दी. आस पास कुछ साउथ के लोग थे, शायद पूरे कूपे में वही थे . . लुंगी, गजरे, अइयो सब चेहेक रहे थे. अब मुझे अजीब सी कुलबुलाहट होने लगी, कि पास बैठा परिवार यूँ रफ़्तार में जाने क्या बतियाये जा रहा था. कभी आवाज़ नीची होती कभी ऊंची, ऐसा लग रहा था वो आदमी लड़ रहा हो!! खैर मैंने पर्स से एक मैगजीन निकाली और अपना मूंह ढक लिया. कितनी ही कोशिश की पर वो आवाज़ मेरे सामने पड़े हर शब्द को ढँक लेती. कैसे भी कर के  उस डराती भाषा के साथ, उस लहजे के साथ जूझती हुई मैं ग्वालियर पहुँच  गयी .स्टेशन पे भैया आया था, मिलके पूछा- कैसी है ?

आह, कितनी तसल्ली मिली ये शब्द सुन कर !  मैं कुछ देर तक उसकी तरफ देख के मुस्कुराती रही जैसे मेरी कोई बहुत भूली, पीछे छूटी कोई चीज़ उसने मेरी मुट्ठी में दबा दी हो. फिर जब ध्यान में आया,  जवाब था - अच्छी हूँ, अब अच्छी हूँ !

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