शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

सत्तू ओ हरि



हरि और सत्तू, दोनों छारी गाँव से ताल्लुक रखते थे, देसी और खेती जम के !
अच्छा रेडियो के दोनों दीवाने, बस मोबाइल में ही रेडियो था .. कान में लगाए घुमते रहते. दिन कैसे भी कटा हो, कितना भी दूर काटा हो .. रात तो वही जग्गू की दारु की दूकान पर. वहीँ से दोनों १२ या १ के आस पास उठते हाथ हिलाते हुए और कहते हुए - चल फिर हरि, चल फिर सत्तू .. अब कल मिलते हैं. दोनों की बीवियां घर में अपने अपने परमेश्वरों को कोसा करतीं, कोसे भी क्यों ना, उनके जेवर धोती सबके पैसे तो सौत दारू ले जाती.

हिलते हिलाते, गिरते लडखडाते दोनों घर आते .. और जाते से ही आँगन में बिछी खाट पर धां ! फिर बडबडाते हुए नींद को प्यारे हो जाते .. और सुबह होश और लक्ष्य के साथ उठते !

खैर, थे मज़े के आदमी, घर बार होते हुए भी बिलकुल कवारों से, बेफिक्राना से. हो तो सही, नहीं हो तो भी सही. जग्गू के महफ़िल में दोनों जो बातें होतीं, वाह ! फिर तो  शराब भी झूमती चेहेकती उनके गले से उतरती. कोई सुनने वाला नहीं था, सिवाए दोनों के, कोई कहने वाला नहीं था, सिवाए दोनों के.

आज शाम भी अँधेरे आसमान को देखते ही दोनों एक कान फोन से ढके .. गाने के हिलोरों पर बहे चले जा रहे थे,वहीँ महफ़िल की ओर. पहुंचे - "अबे सुनो ! इधर दो तो, देसी और हाँ गिलास साफ़ चाइये" .तखत पे हाथ पैर बाँध के, बस आने का इंतज़ार करने लगे .. आई, खोली .. और ये चड़ी ! अब शुरू हुईं दोनों की नशीली गुफ्तगू.

हरि - सुने अभी रेडियो पे, साले चीन, पकिस्तान रोटी खींचे जा रहे ..कुछ हिस्से तो ले भी लिए . और हमारे सरदार जी कुछ करते ही नहीं.ओ का कहते हैं पता है देस को - सोफ्ट स्टेट ..बोले मुलायम.

सत्तू -देखो तो रोटी मुलायम बने तो अच्छी कहलाती है, पर फिर कुत्ते जीभ हिलाते हैं, कड़क बने तो बुरी ..मगर फिर नियत नहीं आती उस पे किसी की. अब सरदार जी मुलायम ..झुक चलते हैं, धीमा बोलते हैं ..कभी भड़कते नहीं, मैडम ने पाले हैं, संस्कार पे तो कोई संदेह नहीं, वो तो कपास से सफ़ेद और  नरम हैं.

हरि - ह्म्म्म, पर बोलो दे दें ! वो लेते जाएँ, हम देते जाएँ. भारत माँ क्या इस लिए बुलाते हैं की अबला को संबोधित  करन लगा ये देस हमारा. चलो छूडो हम तो कहीं बीच में पड़े हैं .. कोई दिक्कत नहीं.

सत्तू - अरे हरि, ऊ गाना सुने का - तेरे मस्त मास दो नैन , मेरे दिल का ...आहा क्या गाना है ..माँ कसम झूम उठते हैं सुनते ही हम तो.

हरि - हाँ, बढ़िया है ..हमें भी पसंद है, हमारा छोरा भी गुनगुनाता रहता है आज कल ऊ ही.

कुछ देर दोनों कुछ नहीं बोले, इधर उधर देखते रहे, आँखें मिस्मिसाते, कभी मच्छर मारते. अब शराब आँखों में उतर गयी थी, दोनों धुंधले से हो गए थे .. आस पास के नज़ारे भी.हरि ने एक मच्छर के संग उस चुप्पी पे भी एक ताली दे मारी.

हरि -एक बात, हमे लगता है देस को किसी पहेलवान की ज़रूरत है, किसी सनकी की .. कि जो बस लग पड़े, और डाल दे इन कुत्तों के गले में पट्टा ! कभी कहबी तो मन करता है चले जाएँ दिल्ली और सिखा दें तीन चार गालियाँ सरदार को .  अरे, ऐसे कैसे लूटे कोई, और गद्दी पे धृतराष्ट्र  !

वेग में आ चुका था हरि, उठ के खड़ा हो गया. सत्तू मुस्कुरा रहा था, मगर शिर्कन उसके माथे पे भी थी.

सत्तू - बैठा बैठा, अरे क्यों बिलावजह .. उड़े जाते हो. मौसम बदलते हैं हरि, क्या पता कोई आय, और देश के कतरे पर .. फिर उड़ने के काबिल .. ऊऊ ऊऊ .

बातों की गर्माहट अब दिमाग में सरकने लगी थी, दोनों अपनी हदों से वाकिफ थे, उठे हाथ हिलाया और अब कल मिलते हैं कह के .. अपनी अपनी डगर को हो लिए.

1 टिप्पणी:

दीपशिखा वर्मा / DEEPSHIKHA VERMA ने कहा…

In 1960 – or even as late as 1990 – Chandra’s assessment of India’s international image might have been pretty accurate, albeit not the part about Indians “keeping silent.” Up until the end of the Cold War, many foreign policy elites in Washington, D.C. and elsewhere held the negative stereotype of India as a “soft state,” meaning a state that is too legalistic and naïve to be taken seriously by the tough-minded realists who sit at the world’s high table-SOFT STATE .