मंगलवार, 24 जनवरी 2012

बीमार लड़की, छत और चित्र


बीमार लड़की काफ़ी देर तक छत की ओर ताकती रही. फिर उसे अपना सूखा गला याद आया.
उसका बदन टूट रहा था पर उसने खुद से पूछा- तुम टूटी?
अंदर से आवाज़ आयी-बिल्कुल नहीं.
रात के अँधेरे धागों को तोड़ती-बुनती वो इधर-उधर के चेहरे देखने लगी. उसे पिता की याद आयी जो हल्की-सी छींक आने पर घर सर पर उठा लेते हैं. और फिर माँ को बीमार किया तो घर का पहिया रुक गया, माँ जब-जब बीमार होती, मुस्कुराते हुए ये ज़रूर कहतीं- बीमार मैं नहीं तुम लोग हो, मुझसे ज़्यादा दुःख और तकलीफ़ में हो. और सब मानते भी कि उसके बिना हम कुछ नहीं, ये घर कुछ नहीं.

माँ से होते हुए उसे धीर-धीरे एक लाल रंग की धोती में लिपटी स्त्री दिखी..उसके साथ लिपटी हज़ारों जंज़ीरें.

वह औरत अचानक एक मासूम लड़की में तब्दील हो जाती है..दो गुंथी चोटी वाली चंचल लड़की..जो झूमती है, गाने गाती है, फूलों को इकठ्ठा कर मालाएँ पिरोती. धीरे-धीरे उसके आस-पास भीड़ बढ़ जाती है..कुछ नज़रंदाज़ कर आगे निकल गए तो कुछ घूरते घूरते रुक गए. उसी भीड़ से उसकी माँ का चेहरा उभरता है, वो उसकी तरफ़ एक चुनरी फेंक कर चली जाती है. लड़की धीरे से चूनर ओढ़ लेती है. भीड़, अजब भीड़ जिसकी जिज्ञासा शांत ही नहीं होती, कोई जाए तो नया आता.

उसे अपनी गुड़िया याद आयी जिसकी उसने बिना पूछे शादी कर दी थी, बताशे बांटे थे दोस्तों में और उसकी भोहों के ऊपर तरीके से बिंदियाँ निकाल कर, नाक में एक मोती डालकर..किस तरह स्वाहा-स्वाहा कर उसे फूलों से ढँक दिया था.

आज वो गुड़िया बनी है, सजी-धजी गुड़िया. माँ ने अपना सबसे कीमती जेवर...चुप्पी, उसके पल्लू से बाँध दिया. वह उस गाँठ तो तोलती-मोलती चले जाती है उस आदमी के साथ जो भीड़ कर एक हिस्सा था. उसे उस आदमी से कोई ख़ास हमदर्दी नहीं, वो नहीं जानती किस लिए उसे वो खेल छोड़ने पड़े, किस लिए अपना घर छोडना पड़ा. मगर बुरा किया इस आदमी ने उसके साथ.

इतना सोच बीमार लड़की मुस्कुराने लगती है और मन ही मन बुदबुदाती है- चलो इसे आज़ाद करें!

इस सोच को मनचाहा रंग देती वो उस लड़की का हाथ गाँठ पर रखवाती है और  दृढ़ता के साथ उसे खुलवा देती है. वो आदमी उसकी तरफ़ मुड़के गुस्से से देखता है और वो उसे नकारती हुई...भीड़ से दूर, चुनरी को छोड़ हरे जंगल में दौड़ जाती है.




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