शनिवार, 28 जनवरी 2012

गली और आसमान

जब भी वो खिड़की खोलती सीधे आसमान की तरफ़ देखती. ऊपरी मंजिला मकान का एक ये सुख है- ज़मीन, उसके बाज़ार, शोर अपने हो ना हों..आसमान, उसके पिघले रंग, पक्षी, तारे सब आपके अपने होते हैं. और यह कितने शांत और सरल हैं.
कभी-कभार यूँ गली की ओर देखती भी तो - वही तंग रस्ते पर परिवार को लादे एक रिक्शावाला, रंगीन कमीज़ पहने कुछ  रसिक युवक जो खंभे पर टिके-टिके अपनी उड़ती नज़रों के पेच जोड़ने में लगे हैं, भोलू हलवाई जो जलेबी तल रहा है, कोई बेनाम अधेड़ जो दीवार पर पीक थूक रहा है, कोई अधनंगा बच्चा रोता हुआ.
यहाँ शोर था, एक भागम-भाग थी, बेशुमार उलझे-बिखरे जीवन...कितनी उथल-पुथल है नीचे..और ऊपर, ऊपर आसमान मौन है, नरम आँखों से सब कुछ देखता हुआ. पर..
आकाश तक तो कोई सीढ़ी नहीं जाती वरना..वह इस कोठे में न होती. तब तो वह तारों की पायल पहन एक ठुमरी गाती और खूब नाचती...पूरे आसमान पर नाचती, रौंद डालती सूरज और चाँद. आकाश नहीं जानता धरती पर कितना अँधेरा है.वह नहीं जानता..
उसके घुँघरूओं में कितना गुस्सा है, उसके काजल में कितनी उदासी..और उसके लाल होठों में कहाँ रंग है, कहाँ लहू.

मग़मूम हुआ दिल बिलखता है
सितारों को देखकर, सितारों के साथ
देखता है उन राहों को जहाँ से
खोयी आवाजें तो आती हैं पर
खोये कदम नहीं..






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