शनिवार, 10 दिसंबर 2011

सारा शगुफ़्ता--टूटे रंग


इन्ही छुट्टियों में, सारा का हाथ मेरे हाथ पे रख गयीं अमृता प्रीतम. पाकिस्तान में ऐसे ज़ेहन का होना बड़ी, बहुत बड़ी बात है. सारा का एक-एक लफ्ज़ दुनिया की हर औरत में गूंजता है...बस इतना है-कुछ चुप्पी साध लेती हैं, कुछ कराह लेती हैं और कुछ...कुछ होती हैं जो चिल्ला पड़ती हैं- कहीं दर्ज कर देती हैं अपने एहसासों को दुनिया के लिए, आने वाली बेटियों के लिए, बीवियों के लिए.

वो सारा शगुफ़्ता जो चटख लाल लिपस्टिक लगाती है, आँखों में एक नशेदार पानी जो शायद हर मुसलिम औरत की आँखों में रहता है. आत्महत्या करने वाली औरतें भी, मर तो जाती हैं पर एक बेहद गहरी चीख छोड़ जाती हैं. उस चीख के मायने समझने की कोशिश लोग बार-बार करते हैं...समाज, पति, ससुराल, पिता..सब के ऊपर शक जाता है और जाकर वहीँ किसी पे ठहर भी जाता है. क्योंकि किसी में इतना बूता नहीं कि उसे मौत की खाई में धकेल दे..सिवाय उन लोगों के जिन्हें उसने दिन-रात ख़ुदा से ज़्यादा चाहा, पर मिले तो कुछ निशाँ, कुछ सिसकियाँ, अँधेरा..जो साफ़-साफ़ बयां देते थे कि 'अब मत खापो इनके लिए, ये तुम्हारे काबिल नहीं'.

सारा ने अपनी मौत को कुछ यूँ लिखा था-
"मेरे पैरों तले की ज़मीन चुरा ली गई थी और मेरे बदन को ही मेरा वतन  क़रार दे दिया गया था, ये कब तक क़बूल करती रहती? इंसानों के दाग़ धेते - धेते मेरे तो हाथ काले पड़ चुके थे। उदासी का एक अथाह समन्दर मेरी छोटी सी कश्ती में हरदम सवार रहता। ख़ुदा तो चांद की स्याही से रात लिखता है, लेकिन ख़ुदा के बंदों ने रात की स्याही से मेरे  दिन लिख दिए थे। दुनिया की बेज़मीरी मेरा बदन चाट चुकी थी। बस एक रूह थी, जिसे मैंने मस्जिद की ईंट की तरह बचा रखा था। कहते हैं, बदन में बहुत दिन क़ैद रही तो रूह में ज़ंग लग जाता है, सो चार जून 1984 की उस रात मैंने कर बिस्मिल्लाह खोल दी गांठ..."

सारा की मौत को कहता आखिरी अंश इस चिट्ठे से लिया गया है-
http://janshabd.blogspot.com/2010/12/blog-post.html

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